शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

डबिंग और अनुवाद

मीडिया के तीन प्रमुख उद्देश्य – सूचना , शिक्षा और मनोरंजन है. इनमें मनोरंजन का संबंध फिल्म,रियलिटी शो , धारावाहिक आदि से है. इनके निर्माण में करोड़ों रुपया खर्च होता है. इसके निर्माण में धन निवेश करनेवाला व्यक्ति निर्माता  होता है जिसका सीधा संबंध मुनाफा कमाने से होता है. वह मुनाफा तभी कमा सकता है जब उसके द्वारा निर्मित फिल्म या धारावाहिक दर्शक केंद्रीत हो. दर्शक या श्रोता मनोरंजन चाहते हैं और नवीनता को पसंद करते हैं. दर्शकों को संतुष्ट और उनसे वाहवाही पाने के लिए ऐसे धारावाहिकों, कार्टून फिल्मों तथा फीचर फिल्मों का निर्माण किया जाता है जिनमें नजारें दुनिया के हों परंतु भाषा अपनी हो. वास्तव में अनजाने, अनदेखे एवं अलग से लगनेवाले जगहों या व्यक्तियों को अपनी भाषा में बातचीत करते हुए देखना एक सुखद व रोमांचकारी अनुभव होता है. इसी अनुभव को दर्शको तक पहुँचाने के लिए डबिंग का सहारा लिया जाता है जो आज बहुत लोकप्रिए हो गया है. डबिंग तभी सफल माना जाता है जब उसे अनुदित करनेवाला व्यक्ति की पकड़ दोनों भाषाओं में एक जैसी हो इसलिए आजकल इसमें अनुवादकों की माँग बढ़ गई है.
डबिंग एक भाषा से दूसरी भाषा में किए गए अनुवाद को दर्शकों तक पहुँचाने का माध्यम है. आज डबिंग का महत्व मनोरंजन के हर क्षेत्र में दिखाई दे रहा है, चाहे वह कार्टूनफिल्म हो, ऐनिमेशन फिल्म हो, फीचर फिल्म हो या कुछ और. किपलिंग की पुस्तक जंगल बुक का मोगली जंगल- जंगल बात चली है, चड्डी पहन के फूल खिला है हिंदी में गाते हुए बच्चों के समक्ष टेलिविजन पर आता था तब वे टेलिविजन से ऐसे चिपक जाते थे कि उन्हें अपनी मुँह्मांगी हुई कोई वस्तु मिल गई हो. यहीं  प्रमाद आज बच्चों को डोरेमन’, सिनचॉन ,बार्बी, निंजा हथौड़ी  ऑगी एंड काकरोच, टोम एंड जेरी छोटा भीम जैसे अन्य कार्टून फिल्म या एनिमेशन फिल्म देखकर मिलता है. इसीतरह जापान में बनी रामायण और अंग्रेजी में बनी अलादीन को बच्चे अपनी भाषा में देखकर गौरवान्वित महसूस करते हैं. डबिंग के माध्यम से ही डिस्कवरी और नेशनल ज्योग्राफिक चैनलों की पहुँच भारत के कोने-कोने में है.
पिछले  कुछ वर्षों से हिंदी में अंग्रेजी से डब की गई अनेक फिल्में प्रदर्शित हुई है. ऐसा नहीं है कि दूसरी भाषा से हिंदी में या हिंदी से दूसरी भाषा में डब होने का सिलसिला नया है यह तो काफी पहले से होता आ रहा है. लेकिन पहले एकाध को छोड़कर इन फिल्मों में ज्यादातर सी ग्रेड की या सुबह के शो में आनेवाली सस्ती  कामुक फिल्में ही होती थी. आज हॉलीवूड या क्षेत्रीय भाषाओं की डब फिल्मों ने भारतीय दर्शकोंको बहुत प्रभावित किया है. इससे डबिंग व्यापार को बढ़ावा मिला है और अनुवादकों को रोजगार के कई अवसर प्राप्त हो रहे हैं. जिसतरह हिंदी की पहली फिल्म 1913 ई. की राजा हरिश्चंद्र है उसीतरह पहली डब फिल्म कर्म है जो 1933 ई. में बनी थी. इस फिल्म का निर्देशन जे. एल. फ्रीअर हँट ने किया था और तकनीकि काम ब्रिटिश तकनीशीयनों ने किया था. दीवान शारर की कहानी की पटकथा रूयर्ट डाउनिंग ने तैयार की थी. जिसमें दो परस्पर विरोधी रजावाड़ों  के प्रगतिशील राजकुमार और राजकुमारी की प्रेम कहानी को दिखाया गया था. इस फिल्म में चार गानों में से एक गाना का फिल्मांकन अंग्रेजी भाषा मे किया गया था जिससे हिंदी फिल्मों में अंग्रेजी गाने की शुरुआत हुई थी. इस फिल्म में हिमांशुशेखरऔर देविका रानी ने असाधारण अभिनय किया था. इसी तरह जब राजकपूर की बहुचर्चित फिल्म आवारा के डब को जब जब रुस के दर्शकों ने रूसी भाषा में देखा तो वे राजकपूर के दिवाने हो गए. हिंदी की कई फिल्में दक्षिण में डब करके दिखाई जाती है तो दक्षिण की कई फिल्में आज डब होकर हिंदी में प्रदर्शित हो रही हैं और दर्शकों को आकर्शित कर रही हैं. दक्षिण से बड़ी फिल्मों की हिंदी में डब होकर आने की शुरुआत 1993 की मणिरत्नम की फिल्म रोजा से मानी जाती है. इस फिल्म को जब हिंदी भाषी लोगों ने गले लगाया तो वहाँ से  आनेवाली डब फिल्मों की आवाक और तेज हो गई. दक्षिण की बहुचर्चित और प्रभुदेवा अभिनित फिल्म कादलन का डब जब हिंदी  भाषा में हमसे है मुकाबला नाम से प्रदर्शित हुआ तो इस फिल्म ने व्यावसायिक रूप से अपने झंडे गाड़ दिए. हिंदी सिनेमा की पहली सौ करोड़ी फिल्म गजनी भी डब हुई थी जिसका प्रदर्शन कई भाषाओं मे हुआ था. आज की सर्वाधिक हिट फिल्म रावण चेन्नई एक्स्प्रेस धूम 3’, कृष 3 जय हो जैसी फिल्में एक साथ कई भाषाओं में डब होकर कई देशों में एक साथ प्रदर्शित होती है और 200-300 करोड़ कमाकर निर्माता को मुनाफा का सौदा करवाती है जिससे प्रभावित होकर आज अधिकतर निर्माता अपनी फिल्म वर्ल्ड राईट्स मुनाफे में बेचता है. बहुत सारे हिंदी फिल्मों की डबिंग कई भाषाओं में हुई है जिसमें से प्रमुख है- दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे’, दबंग’,रेड्डी’, दबंग’, वीरजारा’, बॉडीगार्ड आदि. इसीतरह कई अंग्रेजी फिल्म भी डब होकर हिंदी में आई हैं और उसने अपनी सफलता के झंडे गाड़ दिए हैं.ऐसी फिल्मों में प्रमुख हैं— स्लमडॉग मिलेनीयर’, जुरासिक पार्क’, होम अलोन’, स्पीड’, डीप इंपैक्ट’, परफेक्ट मर्डर’,’मैन इन ब्लैक’,’अनाकोंडा’, ममी’,’वार एंड पीस’,’ द ग़ॉडफादर’, द टाईम मशीन’, ग्रेटएक्सपेटेशन’, टाइटैनिक’, हैरी पौटर, आदि. इसीतरह कई विदेशी सिरियल भी डब होकर हिंदी में दिखाया जा चुका है जिसमें प्रमुख है- स्मॉल वंडर’, हू इज द बॉस’, डिफरेंट स्ट्रॉक’, लिटिल मरमेड’, ‘24’ आदि.

डबिंग देखने में तो अनुवाद लगता है लेकिन इसका अनुवाद करना बहुत कठिन काम होता है. इसके अनुवाद में अनुवादक को भाषा की  मुखरता, गति, मुहावरा और रवानगी का तो ध्यान रखना ही  होता है साथ ही उसे अभिनेता के मुख से निकली मूलभाषा की ध्वनियों के कारण हुए होठों के फैलाव का भी सबसे अधिक ध्यान रखना होता है. क्योंकि यदि अनुवादक ने इसपर ध्यान नहीं दिया तो शब्दों और मुँह के फैलाव में तालमेल नहीं बैठ पाएगा. इस संदर्भ में प्रमुख निर्माता निर्देशक सत्यजीत रे का कहना है कि डबिंग फिल्म का अनुवादक एक ऐसी फिल्म को लक्ष्य भाषा में शब्द देता है जिसने पहले ही छवि और रूप प्राप्त कर लिया है. इसतरह डबिंग के अनुवाद में अनुवादक को हर तरह से चौक्कना रहते हुए डबिंग के व्याकरण को समझना होता है जो असधारण काम है और यह असाधारण काम केवल अनुवादक ही कर सकता है. यह साल चुकि हिंदी सिनेमा का 101वाँ साल है हमने2013 में हिंदी सिनेमा के सौ वर्ष पूरा किया है और इन सौ वर्षों मे हमने बहुत कुछ पाया है साथ ही इसमें कई तरीकों को भी  इजादकिया गया है. इसमें डबिंग और रिमेक महत्वपूर्ण है. यदि आप सभी का इसीतरह भरपूर सहयोग मिलता रहेगा और इसमें दिलचस्पी दिखाएँगे तो आने वालेअंकों में हमारी टीम हिंदी सिनेमा के रूपांतरण, डबिंग, रिमेक, सिक्वल आदि में अनुवाद की महत्ता पर एक विशेषांक निकालना चाहेंगे जिससे हम इस सिनामाई व्यवस्था को अच्छी तरह समझ सकें.             

वेलेनटाइन डे गौरव कथा


अपनी कुटिया में वट-वृक्ष की छाया में बाबा प्रेमनाथ ध्यान मुद्रा में बैठे हुए थे और उनके सामने उनके भक्तों का ताता लगा हुआ था. भक्तों में अधिकतर युवा दिखाई दे रहे थे. युवाओं के उत्साह को देखकर ऐसा लग रहा था कि आज कोई न कोई उनका त्योहार है. हमारे देश में ऐसे तो प्रतिदिन ही कोई न कोई त्योहार मनाया जाता है लेकिन कुछ को छोड़कर सभी में युवा उत्साह नहीं दिखाते. हर त्योहार की अपनी एक आत्म कथा होती है और आज के माहौल को देखकर भी लग रहा है कि आज (14 फरवरी)  के त्योहार की भी कोई गौरव गाथा है. यह गाथा उस त्योहार की है जिसके संदर्भ में आज का हर जवाँ दिल सोचता है और उसमें शामिल होना चाहता है. तभी एक ओर से आवाज आती है— “जय हो हीर मैय्या की. जय हो राँझा बाबा की” और उसे सुनकर वहां बैठे युवा भक्त उसे दोहराते हुए कहते हैं –“जय हो हीर मैय्या की. जय हो राँझा बाबा की”. तभी दूसरी ओर से आवाज आती है “ जय हो लैला मैय्या की, जय हो मजनू बाबा की” और वहाँ बैठे हुए सभी व्यक्ति जोश में भरकर उसे दोहराते हैं. तभी बाबा प्रेमनाथ धीरे-धीरे अपनी आँख खोलते हैं और सामनें बैठे हुए युवा भक्तों की भारी भीड़ को देखकर मन ही मन प्रफुल्लित होते हुए उनके ओर अपनी हाथ को उठाकर ऐसे दिखते हैं जैसे वे उन्हें आशीर्वाद दे रहे हैं. तभी एक युवा भक्त कहता है कि बाबा आज वेलेनटाइन डे है और बाबा आप तो इसके बारे में सब जानते है. आप अंतर्यामी है और हम सब आपके मधुर वाणी से इसके विषय में कुछ सुनना चाहते हैं. चूँकि बाबा प्रेमनाथ अपने भक्तों का बहुत ख्याल रखते हैं और उनकी बात को वे ना कहना नहीं चाहते हैं. इसी कारण बाबा उन्हें इस पावन पर्व की गौरव गाथा बताने के लिए तैयार हो जाते है.वे कहते है कि मैं आप लोग को इसकी कहानी  सुनाने जा रहा हूं.  आप इसे ध्यान से सुनिए और देखिए यह कितने त्याग और परिश्रम की कथा है.
बहुत पहले की बात है. प्रेमलाल कॉलेज में रतिकिशन नाम का एक लड़का पढ़ता था. प्यार से वहाँ के सभी लड़के उसे रिक्स कहकर पुकारते थे. वह अत्यंत मेहनती लड़का था. इतना मेहनती था कि वह पूरे कॉलेज में सात- सात गर्लफ्रेंड का बोझ अकेले उठाता था. वह अपना पेट काट- काटकर और सभी बसों में स्टाफ चलाकरजो कुछ बचाता उसे अगले दिन कॉलेज की कैंटीन में जाकर देवियों की चरणों में अर्पित कर देता था. ऐसा वह एकदिन नहीं बल्कि प्रतिदिन करता था. किताबें पढ़ते- पढ़ते और असाइनमेंट बनाते- बनाते वह कब “लव-लेटर” लिखने बैठ जाता उसे पता ही नहीं चलता. वह एक बार पहले लव-लेटर लिखता,उसे पढ़ता फिर ना जाने उसे क्या होता कि उसे फाड़कर फेंका देता. और पुन: लिखने के लिए बेचैन हो जाता था. ऐसा करते- करते कब रात खत्म हो जातीऔए सुबह की लाली आ जाती उसे पता नहीं चल पाता था. जब वह लव-लेटर लिखने में कामयाब नहीं हो पाता तो वह सुबह- सुबह तैयार होकर अपने मोबाईल पर एस. एम. एस. करने लग जाता. एस. एम. एस. करते- करते कीपैड पर उसके अंगूठे और उसके अंगूठे पर कीपैड का रंग इस तरह चढ़ चुका था कि दोनों में अंतर करना मुश्किल लगता था. रिक्स पिछले कई वर्षॉ से निरंतर फेल होकर अपनी क्लास और कॉलेज की प्रतिष्ठा बचाए हुए थे. इन गुजरे सालों में ना जाने कितनी लडकियाँ उसके सामने से निकल गईं लेकिन रिक्स उस कक्षा से हिला तक नहीं क्योकि वह स्वभाव का पक्का था. यह कहते हुए बाबा की आँखें भर आईं. तभी एक भक्त ने कहा “ बाबा प्रेमनाथ की जय” और सभी भक्त एक सुर में बाबा की जयकार करने लगे.
बाबा की आँखे भर आईं थी जिसके कारण उनका गला सुख गया था तब बाबाने पास में रखे हुए एक बोतल को अपने मुख से लगाकर गला गिला करते हुए बोले--- “ धन्य हो प्रेम भक्त, महाप्रतापी रतिकिशन जी ! आजकल के युवाओं में इतना बलिदान देखने को कहाँ मिलता है. आपके चरणों में मेरा कोटि- कोटि नमन.” यह बोलकर बाबा नें शंख की पहली गूँज सुनाई. इसके साथ ही इस गौरव गाथा का पहला चरण यहाँ समाप्त हुआ.आगे की कथा सुनाने से पहले बाबा ने भक्तों में कुछ लाल गुलाब बाँटे और यज्ञ की अग्नि प्रज्ज्वलित की. वे बार- बार बीयर की कुछ बूँदें ,व्हीस्की में मिलाकरखून से लिखे लव-लेटरों को यज्ञ- कुंड डालते जा रहे थे., जिससेकि अग्निकी धारा शांत ना हो. आगे की कथा सुनाते हुए वे बोले------
एक बार रतिकिशन ने ऐसा महान काम किया कि आनेवाले कई दिनों तक उन्हें इसी महानता के लिए उन्हें याद किया गया. हुआ यूँ कि एक लड़की ने उनसे ”प्रेममिलन” फिल्म देखने की इच्छा जाहिर की. फिर क्या था बाबाने तथास्तु कह उस लड़की से वादा कर दिया कि” शुक्रवार का फर्स्ट डे, फर्स्ट शो तेरे नाम बालिके” राजपूतों ने शायद रतिकिशन बाबा से ही अपने वादे पर मर-मिटने की बात सीखी होगी. बाबा वादा कर चुके थे और जेब में एक फूटी कौड़ी नहीं थी. और एक टिकिट की कीमत लगभग 200 रुपया था. साथ में कुछ खान-पान अलग. इतने पैसे का इंतजाम कैसे किया जाए उन्हें यहीं चिंता खाए जा रही थी. किसीसे उधार भी नहीं माँग सकते थे क्योंकि उधार माँगना उनकेशान के खिलाफ था.बाबा वचनबद्ध हो गए थे, इसलिए उन्हें पैसों का इंतजाम करना भी अनिवार्य था. एक युवा भक्त अत्यंत जिज्ञासा से उनकी बात सुन रहा था. जब उससेनहीं रहा गया तो उसने पूछा कि बाबा जल्दी बताओ कि रतिकिशन ने पैसों का इंतजाम कैसे किया.आगे बाबा ने बताया कि रतिकिशन ने वह बलिदानदिया जिसके लिए भावीप्रेमीजन उन्हेंहमेशा याद रखेंगे. रतिकिशन ने अपनीकीमती किताबें रद्दी के भाव बेच दी और किसी तरह 500 रुपया उपराकर अपने वचन को निभाया. बाबा एक सच्चे सामजसेवी थे तभी तो उन्होंने स्वहित से उपर उठकर एक बालिका की खुशी के लिए इतना बड़ा त्याग किया था. ऐसा उन्होंने एक बार नहीं किया था बल्कि कई बार तो उन्होंने बालिका को खुश रखने के लिए अपने कपड़े तक बेच दिए थे. बाबा के कॉलेज के दिनों में ही यह परंपरा चल पड़ी कि एक खास दिन प्रेमी अपनी प्रेमिका को या प्रेमिका अपने प्रेमी को कुछ न कुछ भेंट करेंगे. और ऐसा करने से दोनों के प्रेम –प्रक्रिया में बढ़ोतरी होगी. फिर क्या था युवाओं ने सोचा कि प्रेम यदि कुछ देने से बढ़ेगा तो क्यूँ न रोज ही कुछ दिया जाए. इसके बाद रोज लडकियों को रोज तोहफे में अच्छी किस्म ककी सब्जियाँ,फल और फूल मिलने लगे. कभी गोभी का फूल मिलता तो गोभी का पराठाँ बनता. कभी भिंडी मिलता तो भिंडी की भाजी बनती, कभी कोई कड़वा करेला दे देता तो उसे भरवा करेला बनाकर खा लिया जाता. छात्रों की भारी माँग के चलते कॉलेज कैंटीन में ही एक छोटी सी सब्जी मंडी लगा दी गई. धीरे- धीरे यह परंपरा विश्वविद्यालय के अन्य कॉलेजों तक पहुँच गई. धीरे- धीरे यह बात पूरे देश में फैल गई. तब कुछ देश की कट्टर संस्कृतिवादी संगठनों ने इसका विरोध भी किया और बाद में यह एलान कर दिया कि जहाँ कहीं भी प्रेमी-युगल युगलबंदी करते हुए पाए जाएँगे तो वहाँ रक्षा- बंधन का त्योहार मनवादिया जाएगा. शुरुआत में कुछ हद तक यह सही रहा लेकिन बाद में यह राखी प्यार का लाइसेंस बन गई. अब प्रेमीजन आराम से अपने हाथों पर राखी बाँध कर निकलते और अपनी प्रेमिकाओं के साथ इन्हीं सैनिकों की छत्रछया में प्रेम के पींगे बढ़ाते हुए गाते— “आशिक बनाया, आशिक बनाया आपने.” इससे किसी को शक भी ना होता और उनकी मनोकामना भी पूर्ण हो जाती. बाबा रतिकिशन को तो राखियों का हार तक पहनना पड़ जाता क्योंकि उनके बहनों की संख्या ज्यादा थी. जब इस बात का पता संस्कृतिवादी संगठनों को चला तो वे सकतेमेंआगए.फिर उन्होंने पता लगाना शुरू किया कि ऐसा क्यों हुआ है तो उन्हें पता चला कि यह सोच रतिकिशन की है और उसी के कारण आज संस्कृति भंग हो र्ही है. फिर क्या था उन्हें बंदी बना लिया गया,और खाना- पीना बंद कर दिया गया. लेकिन रतिकिशन तनिक भी व्याकुल नहुए.तभी उस संगठन का सरगना ने  आदेश दिया कि रतिकिशन की शादी करा दी जाए. यह सुनकर रतिकिशन व्याकुल हो गए. यह सजा रतिकिशन के लिए मृत्युदंड से भी बढ़कर था और विवाह के दिन विवाह की वेदी पर उन्होंने अपना प्राण त्याग दिया.बाबा के मरते ही चारों ओर जनाक्रोश फैल गया और युवाओं ने विध्वंस फैलाना शुरु कर दिया. यह देखकर उस संगठन के सरदार  ने एक प्रार्थनासभा बुलाकर घोषणा की कि—“ रतिकिशन जी बड़े ही वीर पुरुष थे. इस युद्ध भूमि में उन्हें वीरगति प्राप्त हुई है.वे मरे नहीं अमर हो गए हैं.हम उनके बलिदान को खाली नहीं जाने देंगे और उनके बलिदान वाले दिन को वेलेंटाइन डे के रूप में मनाया करेंगे. और इस दिन आपस में लोग एक दूसरे से फूल बदलकर बाबा की महान स्तुति करेंगे. भक्तों यह कथा यहीं समाप्त होती है लेकिन वास्तव में बाबा अमर हैं. हर वर्ष हर घर में वे अवतार लेते हैं और अपने अधूरे सपने को आप जैसे ही युवा प्रेमियों के रूप में पूरा करते हैं. भक्तों अपने अंतर्मन में झाँको और उस पुण्य आत्मा को अपने भीतर टटोलो.

यह कहते ही बाबा प्रेमनाथ अंतर्ध्यान हो गए. सामने बैठे हुए युवा भक्तों की नेत्रों से करुणा की धार बह निकली. यज्ञ से बचा हुआ प्रसाद जिसमें कुछ बीयर, व्हीस्की, केक, पेस्ट्रीज तथा पीत्जा आदि लेकर सभी भक्त बाबा का भजन ”किस किस को किस करूँ“ गाते हुए अपने घर की ओर प्रस्थान कर गए.