रविवार, 23 सितंबर 2018

कविता

जब भी होता हूँ परेशान,
सोचता हूँ कुछ,
और लिखता हूँ कविता,
उठाता हूँ कलम,
क्या लिखूँ मैं,
यह सोचते हुए
एक सफेद कागज पर,
बनाता हूँ काली लकीरें,
उसमें खोजता हूँ ,
अपना चेहरा
नहीं मिलता जब,
अपना चेहरा,
हो जाता हूँ मैं उदास,
उदास बहुत उदास,
उदास मन से जब
देखता हूँ समाज को,
ढूँढता हूँ अपने को,
इस समाज की विसंगतियों में,
तो लगता है इसमें मेरा,
चेहरा भी कहीं छूपा है.........