शनिवार, 4 जनवरी 2014

रामविलास शर्मा द्वारा समिक्षित प्रमुख कवि



रामविलास शर्मा द्वारा समिक्षित प्रमुख कवि
मार्क्सवादी आलोचना के शिखर पुरुष डॉ. रामविलास शर्मा का जन्म उन्नाव जिले के उच्चगाँव सानी में 10 अक्टूबर 1912ई. में हुआ था. प्रारंभिक शिक्षा गाँव में खत्म करने के बाद वे गाँव की इस धूल भरी धरती से उठकर नागर परिवेश में आ बसे किंतु उनके व्यक्तित्व में उस मिट्टी की मोह और उसकी गंध जीवनपर्यंत बसी रही. इसी मोह का परिणाम था कि अंग्रेजी के प्राध्यापक होते हुए भी उन्होंने हिंदी भाषा एवं साहित्य की समृद्धि तथा उसमें परिव्याप्त रीतिवादी मूल्यों के ध्वंस का बीड़ा उठाया. लोक-संस्कृति की आधारशिला पर गढ़े गए अपनी समीक्षकीय मूल्यमानों के अनुरूप ही वे हिंदी साहित्य के विकास के लिए समकालीन साहित्यकारों का जन-जीवन से जुड़ा होना अनिवार्य मानते हैं. उनके अनुसार जब तक देश के साहित्यकर्मी एकजुट और संकल्पबद्ध न होंगे देश विकास की अपेक्षित मंजिल नहीं तय कर पाएगा. उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि समाज-संस्कार और देश-प्रेम के उद्देश्य लेकर जब साहित्यकार एक होंगे तभी वे कुछ कर पाएंगे, वरना रूढ़िवादियों से एका करके साहित्य का रथ पीछे ठेला जा सकता है,आगे नहीं बढ़ाया जा सकता. शर्माजी की संपूर्ण आलोचकीय दृष्टि इसी मान्यता पर अधारित है. उन्होंने कोरे सैद्धांतिक प्रतिपादन से उपर उठकर समूचे हिंदी साहित्य की परंपरा की नई व्याख्या और मूल्यांकन कर मार्क्सवादी आलोचना के सामर्थ्य को स्थापित किया.
           डॉ रामविलास शर्मा की समीक्षा का फलक अत्यंत व्यापक है. सैद्धांतिक समीक्षा हो या व्यावहारिक समीक्षा सभी में उन्होंने अपनी रुचि दिखाई है. भारतेंदु, महावीर प्रसाद द्विवेदी, निराला, रामचंद्र शुक्ल और प्रेमचंद से उनके लेखन का गहरा संबंध रहा है. इनकी पहली आलोचकीय कृति पुस्तककार रूप में प्रेमचंद पर ही प्रकाशित हुई थी. इसके अतिरिक्त उन्होंने आधुनिक काव्य के सभी वादों पर भी अपनी गहरी आलोचकीय प्रतिभा को बिखेरा है. उनके द्वारा समक्षित कवियों की आलोचना का फलक भी अत्यंत व्यापक है. एक ओर उन्होंने आदि कवि वाल्मीकि से लेकर कालिदास और भवभूति तक तो दूसरी ओर तुलसीदास से लेकर शमशेर बहादूर सिंहमुक्तिबोध और नागर्जुन द्वारा विरचित कविताओं की समीक्षा की है.
                भारतीय साहित्य में महाकवि बाल्मीकि की रचना रामायण को आदिकाव्य की संज्ञा दी गई है. शर्मा जी इसे मानवीय काव्य मानते हुए लिखते हैं कि इसमें मनुष्य को देवता के सिंहासन पर नहीं बिठाया गया वरन उसकी शक्ति असम्रर्थता और वेदना को अत्यंत सहानुभूति से दर्शाया गया है. इस रचना को दुखांत मानते हुए भी वे इसमें सर्वाधिक मार्मिक घटना सीता के प्रत्याख्यान को  मानते हैं. गर्भिणी सीता को धोखा देकर उनका वन में त्याग करना ऐसी हृदय-विदारक घटना है जिससे राम की वनवास की तुलना नहीं की जा सकती. भले ही तुलसीदास ने अपने रामचरितमानस में सीता के सभी पक्षों का वर्णन अत्यंत मनोयोग से किया है लेकिन सीता के त्याग में जिस क्रूरता का अभास आदि कवि बाल्मीकि ने दिया है, कोई भी परवर्ती कवि उस हद तक नहीं पहुँच पाया है. राम पिता की आज्ञानुवर्तिता में वन गमन करते हैं और लोकविहित नैतिकता की रक्षा के लिए सीता का त्याग करते हैं,  किंतु कवि की सहानुभूति सर्वत्र उन पात्रों के साथ है जो अकारण ही अपमानित और तिरस्कृत होते हैं.कहीं यह संवेदना करूण का रूप लेती है तो कहीं क्रोध का. इस संदर्भ में शर्मा जी की मान्यता है कि मनुष्य मात्र के लिए यह करूणा आदि कवि की कविता का स्थायी तत्व है जो शताब्दियों बाद भी कवियों और पाठकों को भाव-विभोर करता रहा है. चरित्र-चित्रण की दृष्टि से भी आदि कवि ने अपने पात्रों के बीच सामंजस्य बिठाया है. माना जाता है कि लक्ष्मण जल्द ही क्रोधित व उग्र हो उठते हैं लेकिन बाल्मीकि ने लक्ष्मण के जिस क्रोधी स्वाभाव का चित्रण किया है वह बिल्कुल उचित जान पड़ता है. इसीतरह आदि कवि ने विरोधी पक्षों के अच्छाईयों का भी चित्रण किया है. रावण अ‍नेक स्त्रियों के बीच  रमण करता है किंतु उसके शयन-कक्ष में किसी भी स्त्री का अनिच्छित प्रवेश वर्जित है. इस संदर्भ में शर्मा जी ने लिखा है कि रावण के तेज का इससे बढ़कर और क्या बखान हो सकता है? अपनी आलोचना में शर्माजी ने बाल्मीकि की कविता की वस्तु का ही केवल मूल्यांकन नहीं किया बल्कि उसकी भाषा और छंद की विशिष्टताओं पर भी प्रकाश डालते हुए लिखा है कि इस संस्कृत काव्य की यह विशेषता है कि उसमें बोल-चाल की स्वाभिकता है. संवादों में एक कलात्मक गठन है जिसका सबसे प्रभावशाली भाग अंत में आता है, जैसे सीता की अंतिम प्रार्थना कि लक्ष्मण उन्हें देखे और लक्ष्मण के क्रोध में जब वे पिता को मारने की बात कहते हैं.
              साहित्य और समाज में अन्योन्याश्रित संबंध है. साहित्यकार अपने साहित्य का बीज भाव अपने समाज से ही ग्रहण करता है. कालिदास की रचनाओं में भी यही दिखता है. कालिदास का संबंध जिस समाज से है वह चार वर्णों में विभक्त है जिसमें शीर्ष पर ब्राह्मण और सबसे नीचे शूद्र हैं और इस समाज का संचालन क्षत्रिय करता है,जिसके जीवन का अर्थ भोग व युद्ध है. कालिदास ने भी अपनी रचनाओं में युद्ध का चित्रण किया है लेकिन उनके द्वारा वर्णित युद्ध भोग की लालसा से संबंधित न होकर यश से संबंधित है. कालिदास ने अपनी रचना में भोग से संबंधित जिस राजा का चित्रण किया है वैसे राजा अनेक पत्नियों वाले हैं. रामविलास जी का मानना है कि आचार्य शुक्ल ने रीतियुगीन कवियों के जिस चमत्कार-प्रदर्शन की भर्त्सना की है उसके बीज कालिदास की कविता से ही उपलब्ध हैं. कालिदास की कविता मूलत: यौवन और प्रेम की कविता है और वे नारी-सौंदर्य को सर्वत्र प्रकृति-सौंदर्य से जोड़कर देखते हैं. वल्कल वासना शकुंतला दुष्यंत को अनाघात पुष्प सी मनोज्ञा प्रतीत होती है,कर्णिकार और किसलयों से आभूषित उमा शिव को मोह लेती हैं. प्रकृति से गृहित अपनी उपमान योजना की दृष्टि से कालिदास विश्व के कवियों में अग्रगण्य हैं. उनके सौंदर्य वर्णन की प्रमुख विशेषता है कि यहाँ रूप जड़ नहीं स्पंदनशील सत्ता है. रामविलास जी ने कालिदास को अपने युग की प्रखर बौद्धिकता से युक्त मानते हुए बताया है कि प्रखर बौद्धिकता के कारण उनमें लोकोतर कल्पना के साथ यथार्थवादी प्रवृति का भी मिश्रण हो गया है. कालिदास की कविता का मूल्यांकन करते हुए शर्माजी ने लिखा है कि- वनिता और वारुणी में अपार आसक्ति के परिणामस्वरूप जर्जर सामंती व्यवस्था का चित्रण यदि कालिदास के काव्य की सीमा है तो युगीन सीमाओं से परे नारी-चरित्र में स्वतंत्र चेतना एवं मातृत्व की गरिमा का योग उनके साहित्य की स्थायी उपलब्धि है.(परंपरा का मूल्यांकन, पृष्ठ-31)           
करुण रस को साहित्यिक रस के रूप में प्रतिष्ठित करनेवाले भवभूति भारतीय साहित्य की  अमर विभूति हैं. इनके नाटक उत्तर रामचरित एवं मालती माधवम की आलोचना करते हुए शर्मा जी ने  सुखांतता के बावजूद उन्हें दुखांत रूप में दिखाया है. उनके अनुसार भवभूति के इन दोनों नाटकों का मूल्यांकन यूनान की वृहत्त्रयी एवं शेक्सपीयर की ट्रेजडी रचनाओं के संदर्भ में ही संभव है. ऐसा नहीं है कि करुण रस का चित्रण बाल्मीकि ने नहीं किया है बाल्मीकि ने भी करुण रस का चित्रण आवश्यकतानुसार किया है. डॉ रामविलास शर्मा ने अपने सूक्ष्म अध्ययन द्वारा यह बताया है कि भवभूति की जीवन-दृष्टि और बाल्मीकि, होमर एवं अन्य यूनानी नाटककारों की जीवन-दृष्टि में अंतर है. आगे उन्होंने बताया है कि भवभूति जीवन-दृष्टि के संदर्भ में शेक्सपीयर के अधिक निकट हैं. भवभूति और शेक्सपीयर उस नए युग की देन हैं जिसकी विशेषता है कवि का विभाजित व्यक्तित्व. बाल्मीकि, होमर और अन्य यूनानी नाटककार स्वस्थ मन के लोग थे, वे शोक की अनुभूति पर श्लोक रचते थे, किंतु दु:स्वप्नों से पीड़ित मन के विक्षेप का अनुभव उन्हें न था.(परंपरा का मूल्यांकन, पृष्ठ-39) अपने दोनों ही नटकों में भवभूति ने नायिकाओं को पीतवर्ण मृत्यु की छाया से म्लान तथापि अपूर्व सौंदर्य से मंडित दर्शाया है. डॉ. शर्मा का मानना है कि प्रेम के इस दाहक रूप की व्यंजना के पीछे नायिकाओं की पीताभ-परिशोषित किंतु मनोज्ञ छवि की पृष्ठभूमि में भवभूति की स्वानुभूति काम करती है. शर्मा जी भारतीय एवं यूरोपीय साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान हैं, उनके द्वारा भवभूति पर लिखी गई समीक्षा में विषय-वस्तु के अनुरूप गंभीर भाषा-शैली के भी दर्शन होते हैं.
तुलसीदास की आलोचना रामविलास शर्मा ने दृढ़ आस्था से की है. एक सुलझे हुए आलोचक की भाँति उन्होंने तुलसी काव्य के वस्तु और शिल्प का मूल्यांकन किया है. शर्माजी ने तुलसीदास की भक्ति भावना पर गहराई से विचार करते हुए उसके सार्वदेशिक और सार्वकालिक महत्व का उदघाटन किया है. उनका मानना है कि विविध विचारधाराओं से प्रभावित होते हुए भी तुलसीदास किसी एक सीमा से नहीं बँधे हैं. उनकी भक्ति का भव्य प्रासाद ज्ञान की दृढ़ आधारभूमि पर निर्मित है और यह ज्ञान युगीन परिस्थितियों के संस्पर्श से उपजा है. भक्त कवि तुलसीदास के व्यक्तित्व के दो पक्ष हैं---- एक में वह राम के प्रति अनन्य, अविचल भक्ति रखनेवाले स्वाभिमानी भक्त हैं तो दूसरे में वह पेट की आग के मर्म को बताते हैं. इस संदर्भ में शर्माजी ने लिखा है कि –‘तुलसी ने जनसाधारण को भरमाने के लिए किसी काल्पनिक स्वर्ग की रचना नहीं की जहाँ राम नाम जपकर पहुँचने से सभी दुख दूर हो जाएँगे. दुख दूर करना है इसी संसार में और भक्त को रामकृपा की आवश्यकता है इस संसार में रहते हुए मुक्ति पाने के लिए.’(परंपरा का मूल्यांकन, पृष्ठ-64) शर्मा जी की दृष्टि उन समीक्षकों से भिन्न है जिनकी अतिवादी धारणाओं ने तुलसी साहित्य के मूल्यांकन को सरल प्रक्रिया बना दिया है. इनमें पहले श्रेणी के आलोचक वे हैं जिनके विचार से तुलसी इस्लामी आक्रमण से हिन्दुत्व की रक्षा करनेवाले ऐसे जननायक हैं जो ‘रामचरितमानस’ के विविध पात्रों के रूप में हिन्दू समाज और संस्कृति के लिए अमर आदर्शों की सृष्टि करते हैं. दूसरा वर्ग ऐसे समीक्षकों का है जो उन्हें ब्राह्मणवाद और वर्ण-व्यवस्था का ऐसा पृष्टपोषक मानता है जिसकी दृष्टि मे शुद्र और नारी एकसमान हैं. शर्माजी के मान्यतानुसार तुलसी के कृतित्व पर हिंदू समाज का पोषण और सामंती व्यवस्था की पक्षधरता का आरोप लगाने वाले समीक्षक यह भूल जाते हैं कि स्वयं तुलसी ने  त्रास झेला था. बचपन से विपन्नता और अकुलीनता की पीड़ा झेलनेवाले इस महाकवि की वाणी समस्त जातियों और वर्णों को बिलगाती नहीं अपितु मिलाती है. अपने कई निबंधों में उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि तुलसी साहित्य के सामंत विरोधी तत्व, उनकी भक्ति भावना एवं सामाजिक मूल्यों की भाँति उनके साहित्यिक आदर्श भी हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर है. तुलसीदास के अतिरिक्त शर्माजी ने मध्यकालीन कवियों की आलोचना में सूरदास और भूषण की आलोचना भी की है.सूरदास के संबंध में उनका मत है कि --- सूर श्रृंगार और वात्सल्य के ही कवि नहीं हैं, वे प्रेम के श्रेष्ठ गायकों में से एक हैं. इस प्रेम को कुलकानि, लोकधर्म, पाप-पुण्य की मर्यादा कुचलती है, उसका जयघोष सामंती व्यवस्था की ही एक चुनौती है. (आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना, पृष्ठ-90) इसीतरह भूषण की आलोचना करने से पूर्व उन्होंने वीरकाव्य की पृष्ठ्भूमि को दर्शाया है तत्पश्चात तदयुगीन समाज को बताते हुए भूषण की कविता को तत्कालीन समाज से जोड़ा है. उनका मानना है कि “भूषण के काव्य की प्रेरणा सर्वत्र जातीय गौरव , वीरता या आत्मत्याग नहीं है. अन्य समसामयिक कवियों की भाँति अपने आश्रयदाताओं से अधिकाधिक धन प्राप्ति की कामना भी उनकी कविता की महत्वपूर्ण प्रेरणा है. अपने चरितनायकों की शूरता की भाँति उनकी दानवीरता में अतिरंजित प्रशस्ति के मूल में यहीं प्रेरणा कार्य करती है.” (भाषा, युगबोध और कविता, पृष्ठ-41) इसतरह शर्मा जी की दृष्टि में भूषण कुशल, यथार्थवादी कवि की प्रतिभा से संपन्न थे.
        भारतेंदु हरिश्चंद को रामविलास शर्मा ने आधुनिक हिंदी गद्य के जन्मदाता के साथ-साथ एक सशक्त कवि भी माना है.विचारों की प्रगतिशीलता की दृष्टि से भारतेंदु की कविता महत्वपूर्ण है. भारतेंदु को समाज सुधार एवं सामंत विरोधी रचनाओं की प्रेरणा भक्त कवि की जनवादी कविताओं से मिला था. इस संदर्भ में रामविलास जी का मत है कि— भक्त कवियों से भारतेंदु को सबसे बड़ी शिक्षा यह मिली थी कि धर्म, संस्कृति और साहित्य का मतलब प्रेम है.प्रेम के बिना सब फीका है. भारतेंदु की रचनाओं पर सरसरी निगाह डालने पर यह किसी से नहीं छिपेगा कि प्रेम भक्त कवियों की वाणी का प्रमुख स्वर है. इस प्रेम के आधार पर उन्होंने जाति-पाँति, ऊँच-नीच, छूआ-छूत, सामाजिक-विषमता आदि का विरोध करना सीखा. इस प्रेम से उन्होंने देश-प्रेम का संबंध भी जोड़ा”. (भारतेंदु हरिश्चंद, पृष्ठ-47)  अपनी कविताओं में भारतेंदु ने राष्ट्रीय-आत्माभिमान की जो शैली अपनाई है वह उन्होंने विदेशियों से नहीं बल्कि अपने देश की महान कवियों से सीखी थी. इस संबंध में रामविलास जी लिखते है कि तुलसीदास ने भक्ति के रूप में भारतीय जनता में जो सहज आत्मसम्मान जगाया था, वह नई परिस्थिति में भारतेंदु के राष्ट्रीय आत्मसम्मान के रूप विकसित हुआ. (भारतेंदु हरिश्चंद,पृष्ठ-21) शर्मा जी ने भारतेंदु के काव्य भाव के साथ-साथ उनकी भाषा और छंद-योजना के अनूठेपन की भी सराहना की है. शर्माजी ने भारतेंदु के अतिरिक्त भारतेंदु युग के अन्य कवियों-- प्रतापनारायण मिश्र, प्रेमघन, राधाचरण गोस्वामी, बालकृष्ण भट्ट, अंबिकादत्त व्यास आदि की काव्य- प्रतिभा का चित्रण व अवलोकन किया है. भारतेंदु युग और उनके कवियों के संबंध में शर्माजी का मत है कि—जनता की भाषा में, जनता के लिए साहित्य लिखने की समस्या हमारे सामने आज भी है.उसी समस्या को भारतेंदु युग के रचनाकारों ने बड़ी अच्छी तरह हल किया है. हम उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं.” (भारतेंदु हरिश्चंद, पृष्ठ-51)  
      डॉ. रामविलास शर्मा आधुनिक कवियों में सबसे ज्यादा प्रभावित निराला से है. शर्मा जी ने अपने आलोचकीय जीवन की शुरुआत भी निराला की एक कविता से किया था जो सन् 1943 में ‘चाँद’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ था. 1946 में उन्होंने ‘निराला’ नामक एक पुस्तक भी लिखी थी, इसमें उन्होंने निराला का जो विश्लेषण किया है उसमें उनकी मौलिक प्रतिभा का परिचय मिलता है. इस पुस्तक के दूसरे संस्करण की भूमिका में शर्माजी ने लिखा है कि—“इस पुस्तक को लिखने का मूल उद्देश्य यह रहा है कि साधारण पाठकों तक निराला साहित्य पहुँचे. दुरुहता की जो दीवार खड़ी करके विद्वानों ने निराला को उनके पाठकों से दूर करने का प्रयत्न किया था, वह दीवार ढह जाए.” (निराला की साहित्य-साधना,खंड-2  पृष्ठ-74) 1972 ई. में निराला के समग्र साहित्य एवं उनके व्यक्तित्व के विस्तृत विवेचन को उजागर करने के लिए शर्माजी ने ‘निराला की साहित्य साधना’ नामक पुस्तक लिखी. इसमें शर्माजी ने यह दर्शाया कि किस तरह निराला अपने साहित्य के माध्यम से देशी राजा, नवाब एवं जमींदार तथा ऐसी अन्य शक्तियों के विरुद्ध आवाज उठाया जो विदेशियों के सहायक थे. इसी तरह निराला ने देशी भाषा को विदेशी भाषा से किस तरह मुक्ति मिल सकती है उसके बारे में बताया और इस मुक्ति में सहयोग भी किया. वे विभिन्न प्रांतीय भाषाओं तथा अंग्रेजी के सहयोग से हिंदी को समृद्ध करना चाहते थे. उनका मानना था कि “अंग्रेजी सीखनी चाहिए परंतु उसके संस्कारों को अपने उपर हावी न होने देना चाहिए. शर्माजी ने निराला के चिंतन के इस पहलू को इन शब्दों में उजागर किया है— हिंदी प्रदेश भारत का सबसे बड़ा भाषा क्षेत्र है. यहाँ की जनता की सामाजिक-सांस्कृतिक उन्नति हुए बिना समूचे देश की उन्नति असंभव है. हिंदी के साहित्यकारों में निराला ही सबसे अधिक अपने जातीय प्रदेश की समस्याओं के प्रति सतर्क थे. फिल्म से लेकर साहित्य तक उनहोंने सारी समस्याओं को एक ही मूल समस्या के अंतर्गत मानकर उस पर विचार किया. यह मूल समस्या थी हंदी भाषी जाति के विकास की समस्या. (निराला की साहित्य-साधना ,खंड-2,पृष्ठ-74)  
              डॉ. रामविलास शर्मा निराला की विचारधारा के अंतर्गत उन समसामयिक चिंतनधाराओं तथा भारतीय दर्शन के उन तत्वों का भी अध्ययन करते हैं जिनके योग से निराला का जीवन-दर्शन निर्मित हुआ है. शर्माजी की दृष्टि में निराला के कृतित्व एवं व्यक्तित्व में उनका रूढिभंजन रूप सर्वाधिक महत्वपूर्ण है. इसी आधार पर वे उन्हें भारतेंदु, बालकृष्ण भट्ट तथा उनके सहयोगियों की परंपरा की अगली कड़ी मानते हैं. वे निराला की कविताओं की क्रांति के दो स्तर देखते हैं. प्रथमत: यह समाज की प्राचीन रुढ़ियों, पुरातन बंधनों के खंडन की, उनके उच्छेद की क्रांतिधर्मिता है तो दूसरी ओर समस्त साहित्यिक रुढ़ियों का विरोध. स्वाभावत: निराला की कविता में कवि और क्रांतिकारी के तादात्मय का निरुपण है. क्रांति और संघर्ष के कवि निराला ने ब्रह्म, माया तथा प्रकृति पर भी बहुसंख्य रचनाएँ की है. छायावादी कवियों पर यह आरोप लगाया गया है कि वे धरती से विमुख अनंत की ओर पलायन करते हैं परंतु डॉ. शर्मा के अनुसार निराला की कविता इस आरोप को आधारहीन सिद्ध करती हुए यह सत्य   उजागर करती है कि विश्व को तारतम्य में पृथ्वी और आकाश दोनों ही आवश्यक हैं.    उनके शब्दों में— निराला के भावों की जड़े खेतों में है, सुख के भावों की दुख की भावों की भी. यहीं से कल्पना की लताएँ आकाश की ओर लहराती हुई पल्लवित और विकसित होती हैं. (निराला की साहित्य-साधना ,खंड-2,पृष्ठ-194) शर्मा जी का यह भी मानना है कि मूर्ति-विधान तथा ध्वनि प्रवाह का सामंजस्य निराला की काव्य कला की महत्वपूर्ण विशेषता है.
         निराला के अतिरिक्त रामविलास शर्मा ने छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद,महादेवी वर्मा और सुमित्रानंदन पंत के कविताओं की भी आलोचना की है. प्रसाद और निराला के कृतित्व को उनके समकालीन समालोचकों से पूरा न्याय नहीं मिल पाया है.प्रसाद साहित्य के समुचित मूल्यांकन को महत्वपूर्ण मानते हुए शर्मा जी ने लिखा है कि--प्रसाद जी भारतीय संस्कृति से प्रेम करते थे, इस संदर्भ में किसी को दुविधा नहीं है.लेकिन प्रसाद साहित्य में किस सत्य का उदघाटन किया गया है, उसका सामना करने का साहस आज के निहित स्वार्थी रचनाकारों में नहीं है. वे या तो उसकी ओर से उदासीन रहते हैं या उसे गंभीर या रहस्यात्मक बनाकर उसकी मूल स्थापनाओं पर पर्दा डालने का प्रयत्न कर सकते हैं. (परंपरा का मूल्यांकन, पृष्ठ-130) शर्मा जी का मानना है कि प्रसाद दार्शनिक चिंतक पहले हैं उसके बाद वे कवि और नाटककार हैं. शर्मा जी ने अपने निबंध संग्रह भाषा युगबोध और कविता के कई निबंधों में पंत काव्य चर्चा शीर्षक देकर पंत के कृतित्व का संक्षिप्त मूल्यांकन प्रस्तुत किया है. इस चर्चा के अंतर्गत वे सर्वप्रथमचिदंबरा” को चुनते हैं, जिसमें पंत के द्वितीय उत्थान की युगवाणी से लेकर अतिमा तक की रचनाएँ संकलित है.पंत के बाद वे माहादेवी की कविताओं की भी चर्चा करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि महादेवी जन-साधारण के प्रति हार्दिक सहानुभूति की दृष्टि से छायावादी कवियों में निराला के बाद दूसरे स्थान पर आती हैं.
       छायावादी कवियों की समीक्षा के बाद डॉ. शर्मा ने मुख्य रूप से तीन कवियों नागार्जुन, मुक्तिबोध और शमशेर बहादूर सिंह की समीक्षा की है. मुक्तिबोध की कविताओं का विस्तृत मूल्यांकन करते हुए वे उसके अंतर्विरोध को पहचानते हैं. उनका मानना है कि मुक्तिबोध की कविताओं में जो संघर्ष दिखता है वह स्वंय कवि का आत्मसंघर्ष है. इस आत्मसंघर्ष को समझाते हुए डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं कि—उनके आत्मसंघर्ष का अनेक स्तर है. एक स्तर है— निम्न वर्ग की भूमि को छोड़कर सर्वहारा वर्ग से तादात्म्य स्थापित करने का तो दूसरा स्तर है - मन के दु:स्वप्नों, पाप-बोध, मृत्यु-चिंतन और असमान्य मानसिक स्थिति से निकलकर स्वयं को और संसार को वस्तुगतरूप से देखने का. तीसरा स्तर है अपनी काव्यकला को निरंतर विकसित करने का.(नई कविता और अस्तित्ववाद, पृष्ठ-231)             मुक्तिबोध की समग्र कविताओं के अध्ययन के बाद डॉ. शर्मा ने बताया कि उनके काव्य में अस्तित्ववाद का लघुमानव भी है और रहस्यवाद का विराटपुरुष भी. इसी कारण उनकी रचनाओं पर प्रारंभ से ही भाववादी विचारकों का प्रभाव दिखता है. शायद इसी कारण बाद में वे  मार्क्सवाद से प्रभावित होने के बाद भी अपनी कविताओं को भाववाद से अलग नहीं कर पाए. शमशेर बहादूर सिंह की कविताओं में डॉ. शर्मा रीतिवादी रूमानी सौंदर्यबोध और मार्क्सवादी विवेक का द्वंद्व देखते हैं जो कि उनकी रचनाओं में आरंभ से ही मिलता है. मुक्तिबोधऔर शमशेर के आत्मसंघर्ष की तुलना करते हुए डॉ. शर्मा लिखते है— मुक्तिबोध रहस्यवाद को लेकर बड़ी उलझन में पड़े थे, शमशेर में ऐसी कोई उलझन नहीं है. मुक्तिबोध मनोविश्लेषण शास्त्र से प्रभावित होकर अंतर्मन की गुफा में ज्ञान के मणि और रत्न ढ़ूढ़ते थे और फिर इस आत्म- प्रवंचना पर झुँझलाते थे. शमशेर सजीले जिस्म के गुनगुनाने पर ऐसा रीझते हैं कि अंधेरे कुएँ या बावड़ी में उतरने की उन्हें फुर्सत नहीं  मिलती. किन्तु शमशेर उतने आत्म-मुग्ध नहीं, जितने मुक्तिबोध थे. मुक्तिबोध अस्तित्ववाद की ओर खींचे और अपने-पराए अनेक पापों का मैल मन से धोते रहे. शमशेर नई कविता के उन तमाम लेखकों से अलग हैं जो अस्तित्ववाद से प्रभावित हैं. उनका आत्म-संघर्ष है, उत्तर छायावादी काव्यबोध को लेकर. (नई कविता और अस्तित्ववाद, पृष्ठ-83)              
        नागार्जुन की काव्य-रचना के संबंध में डॉ. शर्मा का मानना है कि नई कविता के संदर्भ में नागार्जुन के साथ न्याय नहीं हुआ है.उनकी रचनाओं को जितना महत्व मिलना चाहिए था उतना नहीं मिल पाया है लेकिन वे विश्वास रखते हैं कि जब नई कविता में अस्तित्ववाद की गति जब धीमी पड़ जाएगी और किसानों- मजदूरों के बीच जन्म लेनेवालों आंदोलन से संबंधित कवियों को लोकप्रिय साहित्य और कलात्मक सौंदर्य के बीच सामंजस्य स्थापित करने की समस्या से मुक्ति व मार्गदर्शन के लिए नागार्गुन का काव्य ही कवियों के लिए प्रेरणदायक सिद्ध होगा. डॉ. शर्मा की दृष्टि में नागार्गुन का काव्य इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि उसमें एक साथ लोक-संस्कृति की निकटता, प्रखर राजनैतिक चेतना और उस पर गहरा व्यंग्य तथा यथार्थ जीवन का वैविध्यपूर्ण मार्मिक चित्रण मिलता है. साथ ही नागार्गुन ने अपनी कविताओं में कथ्य के अनुकूल भाषा की सहज गति और लय को आधार बनाकर कई नए भाषिक प्रयोग किए हैं.
उपर के समग्र विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि डॉ. रामविलास शर्मा द्वारा की गई कवियों की  समीक्षा किसी वादके घेरे में बंधी हुई नहीं दिखती. मार्क्सवादी आलोचक होते हुए भी उन्होंने तुलसीदास की समीक्षा दृढ आस्था से की है.उनकी समीक्षा विस्तृत तथ्यों, तर्कपूर्ण विश्लेषण और एक सुगठित पद्धति पर आधारित है जो गहरी पारदर्शिता, प्रबंधात्मकता और वैचारिक अखंडता की वजह से एक अपनी अलग पहचान बनाती है. इनकी समीक्षा के संबंध में प्रो. शंभुनाथ का कहना है कि रामविलास शर्मा की समीक्षा का एक-एक शब्द गेहूँ के अमूल्य दाने की तरह है. उसे अपने साहित्यिक खलिहान और और जीवन के खलिहान में बचाकर रखने की जरूरत है. आवश्यकतानुसार उसे फटकने की जरूरत है लेकिन उसे इतना नहीं फटका जाए कि उसमें गेहूँ ही ना बचें. डॉ. रामविलास शर्मा ने कई जगह लिखा और कहा है कि मेरी सबसे बड़ी शक्ति यह है कि मैं किसी की परवाह नहीं करता जो मुझे ठीक लगता है वह लिखता या कहता हूँ. यह आत्माभिव्यक्ति उनकी समीक्षा \और उनकी लेखनी पर हमेशा विराजमान रहा है जिस कारण डॉ. रामविलास शर्मा अपने युग के सभी समीक्षको से अलग एक नई दिशा तैयार करते है. निश्चितरूपेण शर्मा जी द्वारा की गई कवियों की समीक्षा अत्यंत उदात्त,भाववादी और व्यापक जीवन-दृष्टि परिपुट है.
सहायक ग्रंथ
1.   रचना और समालोचना : डॉ. हरदयाल
2.   हिंदी आलोचना की बीसवीं सदी : डॉ. निर्मला जैन
3.   हिंदी आलोचना : डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी
4.   हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास : डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी
5.   आलोचना की साखी : अरविंद त्रिपाठी
6.   हिंदी आलोचना का विकास : डॉ. नंदकिशोर नवल
7.   आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना : डॉ. रामविलास शर्मा
8.   हिंदी आलोचना शिखरों का साक्षात्कार : रामचंद्र तिवारी
9.   हिंदी आलोचना के आधार स्तंभ : डॉ. रामेश्वर खंडेलवाल, डॉ. सुरेशचंद्र गुप्त