मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

भारतीय सिनेमा के जनक श्री धूंडीराज गोबिंद फाल्के


   
भारतीय सिनेमा के जनक श्री  धूंडीराज गोबिंद फाल्के का जन्म 30 अप्रैल 1870 को हुआ था. आज उनकी जन्मतिथि है. धूंडीराज गोबिंद फाल्के अर्थात दादा साहब  फाल्के ने 1919 ई. में एक साक्षात्कार में कहा था कि फिल्म मनोरंजन का उतम माध्यम है लेकिन वह ज्ञानवर्द्धन का भी बेहतरीन माध्यम है. और इसी ज्ञानवर्द्धन के लिए उनके जेहन में फिल्म निर्माण की बात सुझी. ऐसा मैं इसलिए कह पा रहा हूं कि जब उन्होनें 1911ई. में अंग्रेजी फिल्म लाईफ आँफ क्राइस्ट देखी तो वे इस फिल्म से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने देश के महानलोगों की गौरव गाथा को पर्दे पर उतारने का फैसला किया.इसी फैसले के तहत उन्होंने 1913 ई. में राजा हरिश्चंद्र जैसी फिल्म बनाई. 40 मिनट की इस मूक फिल्म  का पहला प्रदर्शन 3 मई 1913 को मुम्बई के गोरेगाँव में स्थित कोरेनेशन थियेटर में हुआ, जिसे देखने के लिए लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा. इसमें राजा हरिश्चंद्र के जीवन संदर्भों को दिखाया गया है. इस फिल्म के निर्माण में फाल्के ने न केवल अपने पूरे जीवन की कमाई को लगाया अपितु अपने पत्नी के गहने तक बेच डाले. इस फिल्म के निर्माण में उन्हें कई मुसिबतों को झेलना पड़ा जब उन्होंने पैसा इकट्ठा कर लिया तो समस्या तारामती के रोल को लेकर हो गया, कोई भी स्त्री इस रोल को करने को तैयार नहीं हुई.तब अंत मे इस रोल को निभाने के लिए एक पुरूष को तैयार किया गया.इस फिल्म के सभी पात्र पुरूष ही हैं. आज एक फिल्म के निर्माण से प्रदर्शन तक ना जाने कितने लोग जुड़े होते हैं लेकिन उस समय अधिकतर कार्य खुद फाल्के ने ही किया. उन्होंने इस फिल्म के लिए एक विज्ञापन भी तियार किया जो इस प्रकार था सिर्फ तीन आने में देखिए दो मील लंबी फिल्म और सतावन हजार चित्र. इस फिल्म को लेकर वे इतने सजग थे कि बैलगाड़ी पर प्रोजेक्टर को रखकर वे गाँव-गाँव जाकर फिल्म को दिखाते थे . यदि किसी के पास तीन आने नहीं होते तो वे उसे एक आने में भी फिल्म को दिखा देते. इस फिल्म के अतिरिक्त दादा साहब 1937 ई. तक लगभग 125 फिल्मों के निर्माण से जुड़े रहे. उनकी अधिकतर फिल्में मिथ चरित्रों पर ही अधारित थीं. उनकी प्रमुख फिल्में हैं- भस्मासूर मोहिनी, सत्यवान सावित्री, लंकादहन आदि.
आज फाल्केको भारतीय सिनेमा का जनक माना जाता है और फिल्म का सबसे बड़ा पुरूस्कार भी उन्हीं के नाम पर दिया जाता है लेकिन उनके जीवन के अंतिम दिन गुमनामी में ही गुजड़े थे. खैर इतना तो वे जरूर कर गये कि आज फिल्म जीवन का अनिवार्य हिस्सा बन गया है. आज फिल्म ने एक उद्योग- धंधा का रूप धारण कर लिया है जिसका सलाना व्यापार लगभग 100 अरब का है और हर साल लगभग 1100 छोटी-बड़ी फिल्में बनती हैं, जिससे लाखों लोगों का जीवन-यापन चलता है . ऐसे महान पुरूष के जन्मदिन पर उन्हें  शत शत नमन.....................  

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

आज का अखबार


आज का अखबार

रोज मैं सबकी हाथों की खबर बनता हूँ,
चार रुपए में मुझे बेचा जाता है,
सभी सुबह उठकर  मुझे,
अपने हाथों में लेना चाह्ते हैं,
तनिक भी देरी  होने पर,
बेचैनी से मेरा इंतजार करते हैं,
कई लोग मुझे पढ़कर खुश होते  हैं,
तो कई लोग परेशान  होते हैं,
सभी अपनी धून में रमे हैं,
किसी को मेरी चिंता नहीं है,
आज मैं केवल सनसनी बन गया हूँ,
मेरी मांग तब और बढ़ जाती है,
जब बालात्कार की सनसनी खेज,
बनाकर मुझे परोसा जाता है,
रोज ही मैं बेइमानी, चोरी, भ्रष्टाचार,
बच्चों पर जुल्म, नेताओं के ढकोसले,
आदि बयाँ करता हूँ,
आज मेरे अस्तित्व की लौ भी,
धीरे- धीरे खत्म हो रही है,
खबर छापने की आड़ में,
लोगों को मेरे नाम पर,
लूटा जा रहा है,
इससे मैं अपनों द्वारा ही
बेइमान बनाया जा रहा हूँ,
मैं आज की गंदी होड़ में शामिल हूँ
मैं ही आज का अखबार हूँ.....