रविवार, 12 मई 2013

मातृ -दिवस पर


भारतीय संस्कृति में माता- पिता के चरणों में स्वर्ग होने की बात कही गई है. महाभारत में बताया गया है जैसे भूमि के समान कोई दान नहीं, सत्य के समान कोई धर्म नहीं, दान के समान कोई पुण्य नहीं, वैसे ही माता-पिता समान कोई गुरु नहीं.महाभारत में ही भीष्म कहते हैं कि आचार्यों से दसगुणा ज्यादा गौरव उपाध्याय का होता है,उपाध्याय से दस गुणा ज्यादा गौरव पिता का होता है और पिता से दस गुणा ज्यादा गौरव माता का होता है.इसीकारण माना गया है कि माता के ऋण से कोई कैसे एक दिन में मुक्त हो सकता है उनके ऋण से तो साल के 365 दिन में भी मुक्त नहीं हुआ जा सकता है.माँ के बिना तो ममता और प्यार की कल्पना भी नहीं की जा सकती.इस प्यारऔर ममता को केवल हम एक दिन थोड़ा बहुत स्मरण कर सकते हैं. माँ की इस ममता को मुनव्वर राणा ने दो पंक्तियों में इस तरह व्यक्त किया है..
कुछ नहीं होगा तो आँचल में छिपा लेगी मुझे,
माँ कभी भी सर पर खुली छत नहीं रहने देगी....

शमशेर बहादुर सिंह की पुण्य तिथि पर...


आधुनिक हिंदी कविता के अग्रणी कवि या यूँ कहें कि कवियों के कवि शमशेर बहादुर सिंह की  आज पुण्य तिथि है.12 मई 1993 को उनका देहांत अहमदाबाद में हुआ था. लगभग 82 वर्ष के अपने जीवन काल में शमशेर ने 52 वर्ष तक निरंतर साहित्य सेवा की और  आधुनिक हिंदी कविता को एक नए  मुकाम तक लाने में अग्रणी भूमिका का निर्वहण किया. उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं— कुछ कविताएँ, चुका भी हूँ नहीं मैं, इतने पास अपने, बात बोलेगी,काल तुझसे होड़ है मेरी आदि. शमशेर जी सच्चे कवि थे, अपनी शर्तों पर कवि थे. शायद इसी कारण वे किसी भी आलोचना की परवाह नहीं करते और वहीं लिखते रहते जो वे अंदर से महसूस करते. जो उनका अनुभव था. जो उनका अपना सौंदर्य बोध था, जो उनका जीवन विवेक था,उसे अत्यंत कलात्मक छवि के साथ सबके सामने लाते रहे. वे प्रयोगवादी हैं,प्रगतिवादी हैं,रूपवादी हैं या वस्तुवादी हैं इसकी चिंता उन्हें कभी नहीं रही वे तो बस लिखना जानते थे और वे ताउम्र लिखते रहे. संगीत,कविता और चित्र शमशेर के भीतर एक दूसरे में समाए हुए है:-
वह जो हमारे हृदय में बज रहा है
मैं उस साज में चाँद देखता हूँ
उसको पकड़ना चाहता रहा हूँ
मेरी इस चाह के अलावा
मैं कुछ नहीं, कुछ नहीं  (चुका भी ही नहीं मैं )
ऐसे महान कवि के पुण्य तिथि पर उन्हें भावाभिनी श्रद्धांजलि.....  

शुक्रवार, 3 मई 2013

हिंदी सिनेमा के सौ वर्ष


आज का दिन हिंदी सिनेमा का स्वर्णिम दिन है क्योंकि आज से ठीक सौ साल 3 मई 1913 को मुम्बई के गोरेगाँव में स्थित कोरेनेशन थियेटर में 40 मिनट की मूक फिल्म “राजा हरिश्चंद्र” का पहला प्रदर्शन हुआ था, जिसे देखने के लिए लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा. यह फिल्म धूंडीराज गोबिंद फाल्के अर्थात दादा साहब फाल्के ने बनाई थी.इस फिल्म का अधिकतर कार्य दादा साहब फाल्के ने ही किया था और आज रिलीज हो रही फिल्म "बाम्बे टॉकिज" जिसमें एक साथ चार कहानी और चार निर्देशक- करण जौहर, दिवाकर बनर्जी,जोया अख्तर और अनुराग कश्यप हैं. इस फिल्म का नाम 1930 के समय की मशहूर फिल्म कंपनी के नाम पर रखा गया है. 1930 के आस-पास एक साथ तीन कंपनियों ने फिल्म निर्माण में कदम रखा था.वे कंपनियाँ है--प्रभात टॉकीज, बाम्बे टॉकीज और न्यू थियेटर.न्यू थियेटर के बैनर तले बनी हुई फिल्म "देवदास" खूब चली.इस फिल्म का निर्माण पी. सी. बरूआ ने किया था.उसी समय बाम्बे टॉकीज के बैनर तले 1936 ई. में "अछूत कन्या"का निर्माण हुआ जिससे हिन्दी सिनेमा को एक नयी पहचान मिली.इस फिल्म की नायिका देविका रानी ने अछूत लड़्की का किरदार निभाया था और उनके साथ नायक के रूप में अशोक कुमार थे. इस त्रासदी फिल्म ने खूब लोकप्रियता हासिल की.आज रिलीज हुई 'बाम्बे टॉकीज' कितनी लोकप्रियता हासिल करती है यह तो पता नहीं लेकिन इस फिल्म ने हिंदी सिनेमा के इतिहास में एक साथ कई निर्देशकों के काम करने का नया ट्रेंड तो शुरू कर दिया है.हिंदी सिनेमा के सौ वर्ष सफलतापूर्वक पूरा होने पर इस क्षेत्र से जुड़े हुए सभी लोगों को अत्यधिक बधाईयाँ और आगे यह और कई नई बुलंदियों को छुएगी ऐसी आशा..................

मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

भारतीय सिनेमा के जनक श्री धूंडीराज गोबिंद फाल्के


   
भारतीय सिनेमा के जनक श्री  धूंडीराज गोबिंद फाल्के का जन्म 30 अप्रैल 1870 को हुआ था. आज उनकी जन्मतिथि है. धूंडीराज गोबिंद फाल्के अर्थात दादा साहब  फाल्के ने 1919 ई. में एक साक्षात्कार में कहा था कि फिल्म मनोरंजन का उतम माध्यम है लेकिन वह ज्ञानवर्द्धन का भी बेहतरीन माध्यम है. और इसी ज्ञानवर्द्धन के लिए उनके जेहन में फिल्म निर्माण की बात सुझी. ऐसा मैं इसलिए कह पा रहा हूं कि जब उन्होनें 1911ई. में अंग्रेजी फिल्म लाईफ आँफ क्राइस्ट देखी तो वे इस फिल्म से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने देश के महानलोगों की गौरव गाथा को पर्दे पर उतारने का फैसला किया.इसी फैसले के तहत उन्होंने 1913 ई. में राजा हरिश्चंद्र जैसी फिल्म बनाई. 40 मिनट की इस मूक फिल्म  का पहला प्रदर्शन 3 मई 1913 को मुम्बई के गोरेगाँव में स्थित कोरेनेशन थियेटर में हुआ, जिसे देखने के लिए लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा. इसमें राजा हरिश्चंद्र के जीवन संदर्भों को दिखाया गया है. इस फिल्म के निर्माण में फाल्के ने न केवल अपने पूरे जीवन की कमाई को लगाया अपितु अपने पत्नी के गहने तक बेच डाले. इस फिल्म के निर्माण में उन्हें कई मुसिबतों को झेलना पड़ा जब उन्होंने पैसा इकट्ठा कर लिया तो समस्या तारामती के रोल को लेकर हो गया, कोई भी स्त्री इस रोल को करने को तैयार नहीं हुई.तब अंत मे इस रोल को निभाने के लिए एक पुरूष को तैयार किया गया.इस फिल्म के सभी पात्र पुरूष ही हैं. आज एक फिल्म के निर्माण से प्रदर्शन तक ना जाने कितने लोग जुड़े होते हैं लेकिन उस समय अधिकतर कार्य खुद फाल्के ने ही किया. उन्होंने इस फिल्म के लिए एक विज्ञापन भी तियार किया जो इस प्रकार था सिर्फ तीन आने में देखिए दो मील लंबी फिल्म और सतावन हजार चित्र. इस फिल्म को लेकर वे इतने सजग थे कि बैलगाड़ी पर प्रोजेक्टर को रखकर वे गाँव-गाँव जाकर फिल्म को दिखाते थे . यदि किसी के पास तीन आने नहीं होते तो वे उसे एक आने में भी फिल्म को दिखा देते. इस फिल्म के अतिरिक्त दादा साहब 1937 ई. तक लगभग 125 फिल्मों के निर्माण से जुड़े रहे. उनकी अधिकतर फिल्में मिथ चरित्रों पर ही अधारित थीं. उनकी प्रमुख फिल्में हैं- भस्मासूर मोहिनी, सत्यवान सावित्री, लंकादहन आदि.
आज फाल्केको भारतीय सिनेमा का जनक माना जाता है और फिल्म का सबसे बड़ा पुरूस्कार भी उन्हीं के नाम पर दिया जाता है लेकिन उनके जीवन के अंतिम दिन गुमनामी में ही गुजड़े थे. खैर इतना तो वे जरूर कर गये कि आज फिल्म जीवन का अनिवार्य हिस्सा बन गया है. आज फिल्म ने एक उद्योग- धंधा का रूप धारण कर लिया है जिसका सलाना व्यापार लगभग 100 अरब का है और हर साल लगभग 1100 छोटी-बड़ी फिल्में बनती हैं, जिससे लाखों लोगों का जीवन-यापन चलता है . ऐसे महान पुरूष के जन्मदिन पर उन्हें  शत शत नमन.....................  

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

आज का अखबार


आज का अखबार

रोज मैं सबकी हाथों की खबर बनता हूँ,
चार रुपए में मुझे बेचा जाता है,
सभी सुबह उठकर  मुझे,
अपने हाथों में लेना चाह्ते हैं,
तनिक भी देरी  होने पर,
बेचैनी से मेरा इंतजार करते हैं,
कई लोग मुझे पढ़कर खुश होते  हैं,
तो कई लोग परेशान  होते हैं,
सभी अपनी धून में रमे हैं,
किसी को मेरी चिंता नहीं है,
आज मैं केवल सनसनी बन गया हूँ,
मेरी मांग तब और बढ़ जाती है,
जब बालात्कार की सनसनी खेज,
बनाकर मुझे परोसा जाता है,
रोज ही मैं बेइमानी, चोरी, भ्रष्टाचार,
बच्चों पर जुल्म, नेताओं के ढकोसले,
आदि बयाँ करता हूँ,
आज मेरे अस्तित्व की लौ भी,
धीरे- धीरे खत्म हो रही है,
खबर छापने की आड़ में,
लोगों को मेरे नाम पर,
लूटा जा रहा है,
इससे मैं अपनों द्वारा ही
बेइमान बनाया जा रहा हूँ,
मैं आज की गंदी होड़ में शामिल हूँ
मैं ही आज का अखबार हूँ.....