चारो तरफ भीड़ ही भीड़
मेला ही मेला,
दोस्त ही दोस्त,
फिर भी कितना तनहा है इन्सान?
क्योंकि
वह सुबह से शाम तक
एक मशीन कि तरह
बेखबर,बेहोश,
अंजाम से अनजान
किसी मंजिल कि ओर
भाग रहा है,
इस भागम-भाग में
वह सभी रिश्तो -नातो,
यहाँ तक अपने परिवार से
छूटता जा रहा है.
लेकिन उसे पता है कि
इतना होने पर भी वह
इस दिखावटी समाज में
धनवान बनने कि ओर
अग्रसर है.
इस धनवान बनने कि
प्रक्रिया में चाहे
उसका मानवीय चेहरा
पीछे रह जाये.
मेला ही मेला,
दोस्त ही दोस्त,
फिर भी कितना तनहा है इन्सान?
क्योंकि
वह सुबह से शाम तक
एक मशीन कि तरह
बेखबर,बेहोश,
अंजाम से अनजान
किसी मंजिल कि ओर
भाग रहा है,
इस भागम-भाग में
वह सभी रिश्तो -नातो,
यहाँ तक अपने परिवार से
छूटता जा रहा है.
लेकिन उसे पता है कि
इतना होने पर भी वह
इस दिखावटी समाज में
धनवान बनने कि ओर
अग्रसर है.
इस धनवान बनने कि
प्रक्रिया में चाहे
उसका मानवीय चेहरा
पीछे रह जाये.