सोमवार, 6 जून 2011

मनुष्य की जिन्दगी


मनुष्य की जिन्दगी,
एक कैलेंडर की तरह है,
जो हर साल वक्त की दिवार,
पर टंगा रह्ता है.
वक्त बिना रुके सभी,
को अपने रंग मेँ रंगकर,
आगे बढता जाता है.
जबकि आदमी आज भी
वहीँ का वहीँ है.
उसमेँ परिवर्तित हुआ है,
तो केवल बाह्य आवरण,
जो आवश्यकता के अनुसार,
बदलता रह्ता है.
नहिँ तो समाज इतना
असम्वेदनशील नहीँ होता
और समाज मेँ चारोँ तरफ
केवल लूट-पाट और बेचैनी
नहीँ दिखती.